[PDF] सूरदास का जीवन परिचय | Surdas ka Jeevan Parichay [2023]

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सूरदास का संक्षिप्त जीवन परिचय ( Surdas Ka Sankshipt Jivan parichay )

नामसूरदास
वास्तविक नामसूरध्वज
जन्म1478 ई०
जन्म-स्थानरुनकता या सीही ग्राम
मृत्यु1583 ई०
मृत्यु का स्थानपारसौली
पिता का नामपंडित रामदास
माता का नामजमुनादास
गुरु का नामआचार्य बल्लभाचार्य
वैवाहिक स्थितिअविवाहित
भक्तिकृष्णभक्ति
ब्रह्म का रूपसगुण
निवास स्थानश्रीनाथ मंदिर
भाषाब्रज
प्रमुख रस श्रृंगार एवम वात्सल्य
काव्य कृतियांसूरसागर, सूरसारावली, साहित्य लहरी
साहित्य में योगदानकृष्ण की बाल- लीलाओं तथा कृष्ण लीलाओं का मनोरम चित्रण किया है।
मुख्य रचनाएंसूरसागर, साहित्य लहरी, सूरसारावली
साहित्य में स्थान वात्सल्य रस के सम्राट
निधनसन 1583 ई०
सूरदास का जीवन परिचय

सूरदास का जीवन परिचय ( Surdas Ka Jivan Parichay )

जीवन-परिचय: भक्तिकालीन महाकवि सूरदास का जन्म ‘रुनकता’ नामक ग्राम में 1478 ईo में पण्डित रामदास जी के घर हुआ था। पण्डित रामदास सारस्वत ब्राह्मण थे। कुछ विद्वान् ‘सीही’ नामक स्थान को सूरदास का जन्म स्थल मानते हैं। सूरदास जन्म से अन्धे थे या नहीं, इस सम्बन्ध में भी विद्वानों में मतभेद हैं। विद्वानों का कहना है कि बाल-मनोवृत्तियों एवं चेष्टाओं का जैसा सूक्ष्म वर्णन सूरदास जी ने किया है, वैसा वर्णन कोई जन्मान्ध व्यक्ति कर ही नहीं सकता, इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि वे सम्भवतः बाद में अन्धे हुए होंगे।

सगुण भक्ति शाखा में कृष्ण भक्ति धारा के प्रतिनिधि कवि सूरदास जी के जन्म-स्थान एवं जन्म तिथि के विषय में विद्वानों में बहुत मतभेद है। सूरदास का जीवन-वृत्त अभी तक शोध का कार्य बना हुआ है। अनेक साक्ष्यों के अवलोकन के उपरांत कुछ विद्वान् इनका जन्म संवत् 1535 (सन् 1478 ई०) में बैसाख शुक्ल पक्ष पंचमी गुरुवार को सीही नामक स्थान को स्वीकार करते हैं। तथा कुछ विद्वान इनका जन्म आगरा से मथुरा जाने वाली सड़क के निकट रुनकता नामक ग्राम में संवत् 1540 में मानते हैं।

‘आईने अकबरी’ के आधार पर इनके पिता का नाम पं० रामदास सारस्वत था। इनके जन्म एवं स्थान आदि को पद के रूप में एक साथ इस प्रकार समेटा जा सकता है-

रामदास सूत सूरदास ने, जन्म रुनकता में पाया।
गुरु वल्लभ उपदेश ग्रहण कर, कृष्णभक्ति सागर लहराया।।

सूरदासजी जन्मान्ध थे या नहीं, इस सम्बन्ध में भी अनेक मत हैं। भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भी इन्हें जन्मांध बताया है और इनके बारे में कहा है- “वह इस असार संसार को न देखने के लिए अपनी आंखों को बंद किए हुए थे।”कुछ लोगों का मत है कि प्रकृति तथा बाल मनोवृत्तियों एवं मानव स्वभाव का जैसा सूक्ष्म, वर्ण्य-विषय की सजीवता और हृदयग्राही चित्र-रूप का जो सुन्दर वर्णन सूरदास ने किया है, वैसा कोई जन्मान्ध कदापि नहीं कर सकता।

सूरदास बचपन से ही शांति एवं बैरागी प्रकृति के व्यक्ति थे। ऐसी मान्यता है की सूरदास जी का विवाह भी हुआ था और समाज से विरक्त होने से पहले ये अपने परिवार के साथ जीवन का आनंद प्राप्त करते थे।भगवत भक्ति की इच्छा से सूर अपने पिता की अनुमति प्राप्त कर यमुना के तट गऊघाट पर रहते हुए श्री कृष्ण की बाल-लीला, गोपी-विरह, गोपी-उद्धव प्रसंग और श्री कृष्ण के विनय के पद गाने लगे।

गऊघाट पर एक बार इनकी भेंट वल्लभाचार्य जी से हो गई। इनकी भक्ति भावना से प्रसन्न होकर स्वामी वल्लभाचार्य ने इन्हें अपने शिष्य के रूप में स्वीकार कर लिया।। सूरदास ने वल्लभाचार्य से दीक्षा ली। महाप्रभु वल्लभाचार्य इन्हें अपने साथ ले गए और गोवर्धन पर स्थापित मंदिर में अपने आराध्य श्रीनाथ जी की सेवा में कीर्तन करने को नियुक्त किया।स्वामी वल्लभाचार्य के पुत्र विट्ठलनाथ ने अपने पिता के चार शिष्य और अपने चार शिष्य को मिलाकर कृष्ण-भक्ति शाखा के आठ कवियों का एक संगठन बनाया जो ‘अष्टछाप’ के नाम से जाना जाता है। सूरदास इसके सर्वश्रेष्ठ कवि थे।

अपने गुरु वल्लभाचार्य जी की मृत्यु के समय विट्ठलनाथजी की उपस्थिति में सूरदास ने गुरु वंदना संबंधी एक बड़े मार्मिक पद का निर्माण किया था-

भरौसौ द्वढ़ इन चरनन कैरो।
श्रीवल्लभ नख-चन्द्र छटा बिनु सब जग मांझ अंधेरों।।

कहा जाता है कि सूरदासजी से एक बार मथुरा में तुलसीदास की भेंट हुई थी और दोनों में प्रेम-भाव भी बढ़ गया था। सूर से प्रभावित होकर ही तुलसीदास ने श्रीकृष्ण-गीतावली’ की रचना की थी।

सूरदास जी को अपने अंतिम समय का आभास हो गया था। एक दिन यह श्रीनाथजी के मंदिर में आरती करके गोवर्धन के पास पारसौली नमक ग्राम में चले गए। वही पर विक्रम संवत् 1640 (सन् 1583 ई०) में इन्होंने अपने इस आत्मा रूपी शरीर का त्याग कर दिया।

सूरदास का साहित्यिक परिचय ( Surdas Ka Sahityik Parichay )

साहित्यिक व्यक्तित्व: हिन्दी काव्य-जगत् में सूरदास कृष्णभक्ति की अगाध एवं अनन्त भावधारा को प्रवाहित करने वाले कवि माने जाते हैं। इनके काव्य का मुख्य विषय कृष्णभक्ति है। इन्होंने अपनी रचनाओं में राधा-कृष्ण की लीला के विभिन्न रूपों का चित्रण किया है। इनका काव्य ‘श्रीमद्भागवत’ से अत्यधिक प्रभावित रहा है, किन्तु उसमें इनकी विलक्षण मौलिक प्रतिभा के दर्शन होते हैं। अपनी रचनाओं में सूरदास ने भावपक्ष को सर्वाधिक महत्त्व दिया है।

इनके काव्य में बाल-भाव एवं वात्सल्य भाव की जिस अभिव्यक्ति के दर्शन होते हैं, उसका उदाहरण विश्व-साहित्य में अन्यत्र प्राप्त करना दुर्लभ है। ‘भ्रमरगीत’ में इनके विरह-वर्णन की विलक्षणता भी दर्शनीय है। सूरदास के ‘भ्रमरगीत’ में गोपियों एवं उद्भव के संवाद के माध्यम से प्रेम, विरह, ज्ञान एवं भक्ति का जो सजीव भाव व्यक्त हुआ है, वह इनकी महान् काव्यात्मक एवं कलात्मक प्रतिभा का परिचय देता है।

सूरदास की कृतियाँ/रचनाएँ ( Surdas Ka Kritiyan/Rachnayein )

कृतियाँ एवं रचनाएं: भक्त शिरोमणि सूरदास ने लगभग सवा लाख पदों की रचना की थी। ‘नागरी प्रचारिणी सभा काशी’ को खोज तथा पुस्तकालय में सुरक्षित नामावली के आधार पर सूरदास के द्वारा लिखित ग्रन्थों की कुल संख्या 25 मानी जाती है, किन्तु अभी तक उनके तीन ग्रन्थ ही प्रकाश में आये हैं-

सूरसागर ( Sursagar )

सूरदास की ‘सूरसागर’ एकमात्र ऐसी रचना है, जिसे सभी विद्वानों ने सही और प्रामाणिक माना है। इसके सवा एक लाख पदो में से केवल 8-10 हजार पद ही मौजूद हो पाए हैं। ‘सूरसागर’ पर ‘श्रीमद्भागवत’ का पूर्ण प्रभाव दिखता है। सम्पूर्ण ‘सूरसागर’ एक गाने योग्य गीतिकाव्य है। इसके पद पूरे हृदय की गहराई के साथ गाए जाते हैं।

सूरसारावली [ Sur Sarawali ]

यह ग्रन्थ अभी तक विवाद की स्थिति में है, किन्तु कथा का स्वरूप, भाव, भाषा, भाषा-शैली और रचना की दृष्टि से बिना संदेह यह सूरदास की पूरी तरह प्रामाणिक रचना है। इसमें 1107 छन्द हैं।

साहित्यलहरी ( Sahitya Lahari )

साहित्यलहरी: ‘साहित्यलहरी’ सूरदास द्वारा रचित 118 दृष्टकूट-पदों का संग्रह है। ‘साहित्यलहरी’ में किसी एक विशेष विषय या वस्तु की विवेचना नहीं हुई है। इसमें मुख्य रूप से नायिकाओं एवं अलंकारों की विवेचना की गई है। कहीं-कहीं पर श्रीकृष्ण की बाल-लीला देखने को मिलता है तथा एक-दो स्थलों पर ‘महाभारत’ की कथा की झलक भी मिलती है।

इन सब रचनाओं के अतिरिक्त ‘गोवर्धन-लीला’, ‘नाग-लीला’, ‘पद संग्रह’ एवं ‘सूर-पचीसी’ ग्रन्थ भी अभी तक प्रकाश में आ चुके हैं।

सूरदास की काव्यगत विशेषताएँ ( surdas ki kavyagat visheshtayein )

काव्य-कला के अनुसार सूर-काव्य में निम्नांकित विशेषताएँ उपलब्ध होती है-

वात्सल्य-वर्णन: हिन्दी-साहित्य में सूर का वात्सल्य वर्णन अद्वितीय है। इन्होंने अपने काव्य में श्रीकृष्ण की विविध बाल-लोलाओ की सुन्दर झाँकी प्रस्तुत की है। माता यशोदा का उन्हें पालने में झुलाना, श्रीकृष्ण का घुटनों के बल चलना, किलकारी मारना, बड़े होने पर माखन की हठ करना, सखाओं के साथ खेलने जाना, उनकी शिकायत करना, बलराम का चिढ़ाना, माखन की चोरी करना आदि विविध प्रसंगों को सूर ने अत्यन्त तन्मयता तथा रोचकता के साथ प्रस्तुत किया है। माखन चुराने पर जब श्रीकृष्ण पकड़े जाते हैं तो वे तुरन्त कह उठते हैं-

मैया मैं नहिं माखन खायो।
ख्याल परै ये सखा सबै मिलि, मेरे मुख लपटायौ॥

श्रीकृष्ण दूध नहीं पीते। इस पर माता यशोदा कहती है कि दूध पीने से तेरी चोटी लम्बी और मोटी हो जाएगी। इसलिए जब माता दूध पीने के लिए कहती हैं तो वे तुरन्त ही दूध पी लेते हैं। दूध पीने के बाद वे चोटी को टटोलकर देखते हैं कि कितनी लम्बी हो गई, परन्तु वह तो छोटी-की-छोटी ही है। इस पर वे माता से कह उठते हैं-

मैया कबहुँ बढ़ैगी चोटी।
किती बार मोहि दूध पियत भइ, यह अजहूँ है छोटी।

बाल- हृदय को ऐसी कितनी ही सुन्दर एवं मनोरम झांकियाँ सूर के काव्य में भरी पड़ी हैं। इस सन्दर्भ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि “वात्सल्य और श्रृंगार के क्षेत्रों का जितना अधिक उद्घाटन सूर न अपनी बन्द आँखो से किया, उतना संसार के किसी और कवि ने अपने काव्य में नहीं। इन क्षेत्रों का वे प्रत्येक स्थान या कहे तो कोना-कोना झांक आए।’

श्रृंगार-वर्णन: श्रृंगार-वर्णन में सूर को अद्भुत सफलता मिली है। इन्होंने राधा-कृष्ण और गोपियों की संयोगावस्था के अनेक आकर्षक चित्र प्रस्तुत किए हैं। राधा और श्रीकृष्ण के परिचय का यह चित्र देखिए-

बूझत स्याम कौन तू गोरी।
कहाँ रहत काकी तू बेटी? देखी नहीं कहूँ ब्रज खोरी।।

संयोग के साथ सूर ने वियोग के भी अनेक चित्र प्रस्तुत किए हैं। श्रीकृष्ण मथुरा चले जाते हैं। गोपियां, राधा, यशोदा, गोप, पशु-पक्षी एवं ब्रज के सभी जड़-चेतन उनके विरह में व्याकुल हो उठते हैं। यहाँ तक कि संयोग की स्थितियों में सुख प्रदान करने वाली कुंज जैसी सभी वस्तुएँ वियोग के क्षणों में दुःखदायक बन गई है-

बिनु गुपाल बैरिन भई कुंजैं।

इस प्रकार सूर ने श्रृंगार के संयोग और वियोग दोनों ही पक्षों का सशक्त चित्रण किया है।

भक्ति-भावना: सूर की भक्ति सखा-भाव की है। इन्होंने श्रीकृष्ण को अपना मित्र माना है। सच्चा मित्र अपने मित्र से कोई परदा नहीं रखता और न ही किसी प्रकार की शिकायत करता है। सूर ने बड़ी चतुराई से काम लिया है। अपने उद्धार के लिए इन्होंने श्रीकृष्ण से कहा है कि मैं तो पतित हूँ ही, लेकिन आप तो पतित पावन है। आपने मेरा उद्धार नहीं किया तो आपका यश समाप्त हो जाएगा। अतः आप अपने यश की रक्षा कीजिए-

कीजै प्रभु अपने बिरद की लाज।
महापतित कबहूँ नहिं आयौ, नैकु तिहारे काज॥

इस प्रकार सूर की भक्ति भावना में अनन्यता, निश्छलता एवं पावनता विद्यमान हैं।

विषयवस्तु में मौलिकता: सूर ने यद्यपि ‘श्रीमद्भागवत’ के दशम स्कन्ध को अपने काव्य का आधार बनाया है, परन्तु इनकी विषयवस्तु में सर्वत्र मौलिकता विद्यमान है। इन्होंने बहुत कम स्थलों पर श्रीकृष्ण के अलौकिक रूप को चित्रित किया है। ये सर्वत्र मानवीय रूप में हो चित्रित किए गए हैं। राधा की कल्पना और गोपियों के प्रेम की अनन्यता में इनकी मौलिकता की अखण्ड छाप दिखाई देती है- लरिकाई कौ प्रेम कहौ अलि, कैसे छूटत?

प्रकृति-चित्रण: सूरदास के काव्य में प्रकृति का प्रयोग कहीं पृष्ठभूमि रूप में, कहीं उद्दीपन रूप में और कहीं अलंकारों के रूप में किया गया है। गोपियों के विरह-वर्णन में प्रकृति का प्रयोग अधिक मात्रा में किया गया है।

प्रेम की अलौकिकता: राधा-कृष्ण व गोपी-कृष्ण-प्रेम में सूर ने प्रेम की अलौकिकता प्रदर्शित की है। उद्धव गोपियों को निराकार ब्रह्म का सन्देश देते हैं; परन्तु वे किसी भी प्रकार उद्धव के दृष्टिकोण को स्वीकार न करके श्रीकृष्ण के प्रति अपने अनन्य प्रेम का परिचय देती हैं- ऊधौ जोग जोग हम नाहीं।

भाषा: सूर ने ब्रजराज श्रीकृष्ण की जन्मभूमि ब्रज की लोक-प्रचलित भाषा को अपने काव्य का आधार बनाया है। इन्होंने बोलचाल की ब्रजभाषा को साहित्यिक स्वरूप प्रदान किया। लोकोक्तियों के प्रयोग से भाषा में चमत्कार उत्पन्न हुआ है। कहीं-कहीं अवधी, संस्कृत, फारसी आदि भाषाओं के शब्दों का प्रयोग भी मिलता है, परन्तु भाषा सर्वत्र सरस, सरल एवं प्रवाहपूर्ण है।

शैली: सूर ने मुक्तक काव्य-शैली को अपनाया है। कथा वर्णन में वर्णनात्मक शैली का प्रयोग हुआ है। दृष्टकूट पदों में क्लिष्टता का समावेश हो गया है। समग्रतः इनकी शैली सरल एवं प्रभावशाली है।

अलंकार: सूर ने अलंकारों का स्वाभाविक प्रयोग किया है। इनमें कृत्रिमता कहीं नहीं है। इनके काव्य में उपमा, उत्प्रेक्षा, प्रतीप, व्यतिरेक, रूपक, दृष्टान्त तथा अर्थान्तरन्यास आदि अलंकारों के प्रयोग प्रचुर मात्रा में हुए हैं।

छन्द: सूर ने अपने काव्य में चौपाई, दोहा, रोला, छप्पय, सवैया तथा घनाक्षरी आदि विविध प्रकार के परम्परागत छन्दों का प्रयोग किया है।

गेयात्मकता (संगीतात्मकता): सूर का सम्पूर्ण काव्य गेय है। इनके सभी पद किसी-न-किसी राग-रागिनी पर आधारित हैं।

हिन्दी-साहित्य में स्थान ( Hindi Sahitya Mein Sthaan )

महाकवि सूरदास हिन्दी के भक्त कवियों में शिरोमणि माने जाते हैं। जयदेव, चण्डीदास, विद्यापति और नामदेव की सरस वाग्घारा के रूप में भक्ति-शृंगार की जो मन्दाकिनी कुछ विशिष्ट सीमाओं में बँधकर प्रवाहित होती आ रही थी उसे सूर ने जन-भाषा के व्यापक धरातल पर अवतरित करके संगीत और माधुर्य से मण्डित किया। भाषा की दृष्टि से तो संस्कृत साहित्य में जो स्थान वाल्मीकि का है, वही ब्रजभाषा के साहित्य में सूर का है। सूर की काव्य-रचना इतनी काव्यांगपूर्ण है कि आगे आनेवाले कवियों की श्रृंगार और वात्सल्य पर आधारित रचनाएँ सूर की जूठन-सी जान पड़ती हैं। इसीलिए इन्हें हिन्दी काव्य-जगत् का सूर (सूर्य) कहा गया है-

सूर सूर, तुलसी शशि, उडुगन केशवदास।
अब के कवि खगोत- सम, जहँ तहँ करत प्रकास।।

इस लेख को भी पढ़े: रसखान का जीवन परिचय ( Raskhan Ka Jeevan Parichay )

प्रश्न: सूरदास का जीवन काल क्या है?

उत्तर: सूरदास का जीवन काल सन् 1478 से सन् 1583 के बीच यानी कुल 105 साल था।

प्रश्न: सूरदास के गुरु का क्या नाम था?

उत्तर:  महाप्रभु वल्लभाचार्य

प्रश्न: सूरदास जन्म से कैसे थे?

उत्तर: सूरदास जन्म से अंधे थे।

प्रश्न: सूरदास के बचपन का नाम क्या था ?

उत्तर: सुरदास के बचपन का नाम सूरध्वज था।

11 thoughts on “[PDF] सूरदास का जीवन परिचय | Surdas ka Jeevan Parichay [2023]”

  1. इस पीडीएफ से बहुत मदत मिली हैं थैंक यू सो मच 😊 मेरा स्कूल ka प्रोजेक्ट भी अच्छे से बन गया 😊👍

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