अविगत गति कछु कहत ना आवे व्याख्या | Awigat Gati Kachu kahat na aawe Vyakhya

नमस्कार दोस्तों, आज की इस लेख में आप सभी का स्वागत हैं। 10 की परीक्षाओ में अक्सर अविगत गति कछु कहत ना आवे व्याख्या (Awigat Gati Kachu kahat na aawe Vyakhya) पूछी जाती हैं। लेकिन इसकी व्याख्या सही तरीके से इंटरनेट पर कही नहीं उपलब्ध हैं। इसलिए आज की इस लेख में आप इसकी व्याख्या को जानेंगे। मैं आप सभी विद्यार्थियों से यह अनुरोध करता हूँ की जिस प्रकार से इस लेख को लिखा गया हैं। ठीक उसी प्रकार से आप परीक्षाओ में लिख सकते हैं।

अविगत गति कछु कहत ना आवे व्याख्या | Awigat Gati Kachu kahat na aawe Vyakhya

——- पद ——

अबिगत-गति कछु कहत न आवै।
ज्यौं गूँगे मीठे फल कौ रस अंतरगत ही भावै॥
परम स्वाद सबही सु निरंतर अमित तोष उपजावै।
मन-बानी कौं अगम-अगोचर, सो जानै जो पावै॥
रूप-रेख-गुन-जाति-जुगति-बिनु निरालंब कित धावै।
सब बिधि अगम बिचारहिं तातैं सूर सगुन-पद गावै॥

अविगत गति कछु कहत ना आवे की सन्दर्भ:

सन्दर्भ: प्रस्तुत पद्यांश महाकवि सूरदास जी द्वारा रचित ‘ सूरसागर ‘ महाकाव्य से हमारी पाठ्य पुस्तक हिन्दी के काव्यखण्ड में संकलित ‘ पद ‘ शीर्षक से उद्धृत है।

अविगत गति कछु कहत ना आवे की प्रसंग:

प्रसंग: प्रस्तुत पद्यांश में सूरदास ने श्रीकृष्ण के कमल-रूपी सगुण रूप के प्रति अपनी भक्ति का निरूपण किया है। इन्होंने निर्गुण ब्रह्म की आराधना को अत्यन्त कठिन तथा सगुण ब्रह्म की उपासना को अत्यन्त सुगम और सरल बताया है।

अविगत गति कछु कहत ना आवे की व्याख्या:

व्याख्या: सूरदास जी कहते हैं कि निर्गुण अथवा निराकार ब्रह्म की स्थिति का वर्णन नहीं किया जा सकता। वह अवर्णनीय है, अनिर्वचनीय है। निर्गुण ब्रह्म की उपासना के आनन्द का वर्णन कोई व्यक्ति नहीं कर सकता। जिस प्रकार गूँगा व्यक्ति मीठे फल का स्वाद अपने हृदय में ही अनुभव करता है, वह उसका शाब्दिक वर्णन नहीं कर सकता। उसी प्रकार निर्गुण ब्रह्म की भक्ति के आनन्द का केवल अनुभव किया जा सकता है, उसे मौखिक रूप से (बोलकर) प्रकट नहीं किया जा सकता।

यद्यपि निर्गुण ब्रह्म की प्राप्ति से निरन्तर अत्यधिक आनन्द प्राप्त होता है और उपासक को उससे असीम सन्तोष भी प्राप्त होता है। मन और वाणी द्वारा उस ईश्वर तक पहुँचा नहीं जा सकता, जो इन्द्रियों से परे है, इसलिए उसे अगम एवं अगोचर कहा गया है। उसे जो प्राप्त कर लेता है, वही उसे जानता है। उस निर्गुण ईश्वर का न कोई रूप है न आकृति, न ही हमें उसके गुणों का ज्ञान है, जिससे हम उसे प्राप्त कर सकें। बिना किसी आधार के न जाने उसे कैसे पाया जा सकता है? ऐसी स्थिति में भक्त का मन बिना किसी आधार के न जाने कहाँ-कहाँ भटकता रहेगा, क्योंकि निर्गुण ब्रह्म तक पहुँचना असम्भव है। इसी कारण सभी प्रकार से विचार करके ही सूरदास जी ने सगुण श्रीकृष्ण की लीला के पद का गान अधिक उचित समझा है।

काव्य सौन्दर्य

यहाँ कवि ने निर्गुण ब्रह्म की उपासना की अपेक्षा सगुण ब्रह्म की उपासना को सरल बताया है।

भाषा: साहित्यिक ब्रज शैली: मुक्तक गुण: प्रसाद
रस: भक्ति और शान्त छन्द: गीतात्मक शब्द-शक्ति: लक्षणा

अलंकार:

अनुप्रास अलंकार ‘अगम अगोचर’ और ‘मन-बानी’ में क्रमश: ‘अ’ , ‘ग’ और ‘न’ वर्ण की पुनरावृत्ति होने से यहाँ अनुप्रास अलंकार है।

दृष्टान्त अलंकार: ‘ज्यों गूँगे मीठे फल’ में उदाहरण अर्थात् मीठे फल के माध्यम से मानव हृदय के भाव को प्रकट किया गया है। इसलिए यहाँ दृष्टान्त अलंकार है।

शब्दअर्थ
अबिगतअज्ञात और निराकार
गतिस्थिति
परम स्वादअलौकिक आनन्द
अमितअत्यधिक
तोषसन्तोष
अगमजहाँ पहुँचना कठिन हो
अगोचरइन्द्रियों की गति से परे
निरालंबबिना किसी आधार के
धावैदौड़े
तातैंइसलिए
सगुनसगुण ब्रह्मा

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प्रश्न: यह पद किसे द्वारा लिखी गयी हैं?

उत्तर: यह पद महाकवि सूरदास के द्वारा लिखी गयी हैं।

प्रश्न: यह पद किसके बारे में लिखी गयी हैं ?

उत्तर: यह पद श्रीकृष्ण के लिये लिखी गयी हैं।

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