ध्रुवस्वामिनी नाटक के नायिका की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए (B.A. 1 st year)

प्रिय पाठक (Friends & Students)! allhindi.co.in में आपका स्वागत है। उम्मीद करता हूँ आप सब लोग अच्छे होंगे। आज की इस नए लेख में आप ध्रुवस्वामिनी नाटक की मूल समस्या पर बात करेंगे ? इसके बारे में जानेंगे। इसके अलावा आप इस प्रकार के प्रश्नो (ध्रुवस्वामिनी नाटक के नायिका की चारित्रिक विशेषताओं पर प्रकाश डालिए?  ध्रुवस्वामिनी नारी अस्मिता का आख्यान है। इस कथन के आधार पर ध्रुवस्वामिनी की चारित्रिक विशेषताओं का उद्घाटन कीजिए।

अथवा ध्रुवस्वामिनी के चारित्रक विशेषताओं का विवेचन कीजिए? अथवा ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक के किसी प्रमुख नारी पात्र की चारित्रिक विशेषताओं का सप्रमाण उद्घाटन कीजिए? अथवा ‘ध्रुवस्वामिनी’ नाटक की सर्वाधिक प्रभावशाली स्त्री पात्र का सदोहरण चरित्र चित्रण कीजिए।) का जवाब भी यही होगा।

ध्रुवस्वामिनी नाटक के नायिका की चारित्रिक विशेषताओं

ध्रुवस्वामिनी नाटक के नायिका की चारित्रिक विशेषताओं

उत्तर-भूमिका-ध्रुवस्वामिनी नाटक की नायिका स्वर्गीय सम्राट समुद्र गुप्त की पुत्रवधू है। रामगुप्त की पत्नी है। इस नाटक की नायिका कुमार चन्द्रगुप्त की प्रेमिका है। ध्रुवस्वामिनी ही इस नाटक की प्रमुख स्त्री पात्र है। डॉ 0 जगरनाथ शर्मा का इस सम्बन्ध में मत दृष्टव्य है-” सारे कार्य व्यापारों के मूल में उसी का सम्बन्ध है और प्रधान फल की उपभोक्ता भी वही है। अन्य सभी पात्र उसके चरित्र को समझने में ही सहायता देते है।

जैसे-रामगुप्त का चरित्र उसके पत्नीत्व व नारीत्व को ऊँचा उठाता है, तो चन्द्रगुप्त और मंदाकिनी के माध्यम से उसका प्रेमिका रूप मुखरित होता है। “इस प्रकार हम देखते है कि ध्रुवस्वामिनी ही आलोच्य नाटक की कथा का मेरूदण्ड है, उसी के नाम पर नाटक का नामकरण भी किया गया है। 

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असहाय नारी-

नाटक के प्रारम्भ में ही ध्रुवस्वामिनी एक असहाय नारी के रूप में सामबने आती है। यद्यपि वह गुप्तकुल की महादेवी है, लेकिन वह अपने को सोने के पिंजरे में बन्द पक्षी के रूप में स्वीकारती है। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण द्रष्टव्य है-‘भला मैं क्या कर सकूँगी। मैं तो अपने ही प्राणों का मूल्य नहीं समझ पाती।’ तथा ‘मेरा नीड़ कहाँ यह तो स्वर्ण पिंजर है।’ रामगुप्त द्वारा शक शिविर में भेजे जाने के निर्णय का वह तत्काल विरोध नहीं कर पाती है। यह जानकर भी कि इस प्रकार की सन्धि गुप्त साम्राज्य के सामने आत्म समर्पण कर देती है और दया की भीख मांगती हैं” मेरी रक्षा करो!

मेरे और अपने गौरव की रक्षा करो। राजा आज मैं शरण की प्रार्थिनी हूँ। मैं स्वीकार करती हूँ कि आज तक तुम्हारे विकास की सहचरी नहीं हुई। किन्तु वह मेरा अहंकार चूर्ण हो गया हैं। मैं तुम्हारी होकर रहूँगी। “ध्रुवस्वामिनी के इस कथन में कसक, दुख की टीस और करूणा की पराकाष्ठा है। यह केवल ध्रुवस्वामिनी की कातर वाणी नहीं है बल्कि युगो-2 से पददलित नारी की करूण पुकार है। युग-2 से पुरूषों द्वारा शोषित नारी का करूण क्रन्दन है नाटककार श्री जयशंकर प्रसाद ने ध्रुवस्वामिनी के माध्यम से युग-2 से पद दलित नारी के असहाय रूप का चित्र अंकित किया है।

उसकी मुक्ति का, उसकी दीनता युक्त प्रार्थना का, उसकी आत्म समर्पण की भावना का जब कुछ भी प्रभाव रामगुप्त के ऊपर, उसके पति परमेश्वर के ऊपर नहीं पड़ता है तो वह आत्म हत्या के लिये तत्पर हो उठती है। उसकी आत्म हत्या की भावना भारतीय अबला की असहाय स्थिति, उसकी विवशता और उसकी दीन, स्थिति की मूल गाथा है, जो शदियों से ऐसे ही दुहराई जाती रही है। इस प्रकार नाटककार ने ध्रुवस्वामिनी की असहाय स्थिति का वर्णनकर प्रकारान्तर से सम्पूर्ण भारतीय नारियों की सामाजिक स्थिति का चित्र उपस्थिति किया है।

ध्रुवस्वामिनी की इस दर्दनाक स्थिति का जिम्मेदार उसका पति रामगुप्त है। उसका पति रामगुप्त विलासी, कायर, मद्यप और क्लीव है। वह उससे बात तक नहीं करता बल्कि ध्रुवस्वामिनी की विविध यातनाओं में जकड़कर उसके जीवन को नारकीय बना देता है। वह बेचारी इन कठिन परिस्थितियों में अपूर्व सहिष्णुता का परिचय देती है। इस प्रकार वह जिस सहिष्णुता, त्याग एवं धैर्य से इन विषमताओं का सामना करती है। वह अत्यन्त सराहनीय है। 

व्यवहार कुशल एवं दूरदर्शिनी

ध्रुवस्वामिनी व्यवहार कुशल एवं दूरदर्शिनी नारी है। अपनी दूरदर्शिता के कारण ही वह रामगुप्त का पैर पकड़कर अपनी रक्षा की दुहाई देती हैं वह जानती है कि इस समय यदि रामगुप्त उसकी रक्षा नहीं करेगा तो उसका जीवन नष्ट हो जायेगा। वह गुप्तकुल की मर्यादा से भी परिचित है इसीलिये वह आग्रह करते हुये कहती है-‘देखिये मेरी ओर देखिये’ मेरा स्त्रीत्व क्या इतने का भी अधिकारी नहीं है कि अपने को स्वामी समझने वाला पुरूष उसके लिये प्राण का प्रण लगा सके।

स्वाभिमानी-ध्रुवस्वामिनी स्वाभिमानी नारी है। जब अपने रक्षा के लिये प्रार्थना करती है और उसकी प्रार्थना अनुसुनी कर दी जाती है, रामगुप्त उसकी उपेक्षा करते हुये जब यह कहता है कि-” नहीं-नहीं जाओ, तुम्हें जाना पड़ेगा। तुम उपहार की वस्तु हो। आज मैं तुम्हें किसी दूसरे को देना चाहता हूँ। इससे तुम्हें आपत्ति क्यों हो? “तब उसके अहं को आघात लगता है और उसका स्वाभिमानी जागृत हो उठता है और वह अपनी रक्षा के लिये स्वयं कटिबद्ध हो जाती है। ‘नहीं मैं अपनी रक्षा स्वयं करूंगी।”

इसके बाद उसमें वीरता का संचार होता है। वह साहस का हाथ पकड़कर चन्द्रगुप्त के साथ शक शिविर में जाती है और प्राचीन परम्राओं तथा धार्मिक जर्जर मान्यताओं पर कुठाराघात करती हुई चन्द्रगुप्त का वरण करती है। वह रामगुप्त को फटकारती हुई कहती है। “कौन महादेवी! राजा, क्या अब भी मैं महादेवी ही हूँ? जो शकराज की शय्या के लिये कृतदासी की तरह भेजी गयी हो, वह भी महादेवी? आश्चर्य?” इतना ही नहीं, वह रामगुप्त को फटकारती हुई कहती है-“मेरी निर्लज्जता का दायित्व क्लीव, का पुरूष पर है, स्त्री की लज्जा लूटने वाले उस दस्यु के लिये मैं ।”

ध्रुवस्वामिनी एक ऐतिहासिक नारी पात्र है, फिर भी वह नारी जागरण का प्रतीक है वह सम्पूर्ण नारी समाज की जागृत करती हुई कहती है’ पुरुषों ने स्त्रियों को अपनी पशु सम्पत्ति समझकर उन पर अत्याचार करने का अभ्यास बना लिया हैं वह मेरे साथ नहीं चल सकता। यदि तुम मेरी रक्षा नहीं कर सकते, अपने कुल की मर्यादा, नारी का गौरव नहीं बचा सकते तो मुझे बेच भी नहीं सकते। “आदर्श प्रेमिका-ध्रुवस्वामिनी एक आदर्श प्रेमिका है।

वह चन्द्रगुप्त की प्रेमिका है, किन्तु रामगुप्त, राज्य हड़पने के साथ ही अनाधिकारिक रूप से उससे विवाह कर लेता है, लेकिन वह चन्द्रगुप्त को भूल नहीं पाती हैं उसकी इस मनोभावना का पता उसी समय चल जाता है जब नाटक के प्रारम्भ में ही वह कहती है-‘कुमार की स्निग्ध, सरल और सुन्दर मूर्ति को देखकर कोई भी प्रेम से पुलकित हो। सकता है।” जब चन्द्रगुप्त को अकेले शक शिविर में जाना पड़ता है। तो ध्रुवस्वामिनी उसे अपने बाहों में कस कर कह उठती है नहीं मैं तुमको न जाने दूंगी। मेरे क्षुद्र, दुर्बल नारी जीवन का सम्मान बचाने के लिये, इतने बड़े बलिदान की आवश्यकता नहीं।

“ध्रुवस्वामिनी का स्वगत कथन भी उसकी चन्द्रगुप्त-विषयक प्रेम भावना को अभिव्यक्त करने में पूर्ण सक्षम है-‘ कितना अनुभूति पूर्ण था, वह एक क्षण का आलिंगन। कितने सन्तोष से भरा था। नियन्ता ने अज्ञात भाव से मानों लू से तपी हुई वसुधा को क्षितिज के निर्जन में सायंकालीन शीतल आकाश से मिला दिया हो … कुमार! तुमने वही किया जिसे मैं बचाती रही। तुम्हारी पुकार और स्नेह की वर्षा से भींगी जा रही हूँ।” इस प्रकार हम देखते है कि ध्रुवस्वामिनी रामगुप्त की विवाहिता है, परन्तु उसके हृदय पर चन्द्रगुप्त का अधिकार है। वह उसी के प्रेम की दीवानी है। 

कोमलता की प्रतिमूर्ति-

ध्रुवस्वामिनी कोमलता और सहिष्णुता की प्रतिमूर्ति है। वह आत्म गौरव की भावना से अलंकृत हैं। यदि उसमें पुरूष जाति की स्वार्थी प्रवृत्तियों, कठोरताओं को वहन करने की अदभुत क्षमता है, तो दूसरी ओर अपने गौर को अक्षुण्ण रखने के लिये प्रखर बुद्धि, वैभव, निर्भीकता व साहस आदि गुणों से युक्त है। कोमा को शकराज का शव दे देना उसकी कोमलता एवं सहिष्णुता का परिचायक है। 

विदुषी महिला-

ध्रुवस्वामिनी एक विदुषी महिला हैं उसके विदुषिता का पता नाटक के उत्तरार्द्ध में लगता है। जहाँ वह चन्द्रगुप्त की सहायता से शकराज को विफल कर देती है और सामन्त कुमारों को उत्तेजित करके उनकी सहानुभूति भी अर्जित कर लेती है। पुरोहित के साथ सभी तर्क उसके वैदुष्य की दुहाई देते हैं। वह राक्षस विवाह का तीव्र विरोध करते हुये पुरोहित को उसके कर्मकाण्डों को तथा शस्त्रों को भी असत्य साबित करने में नहीं हिचकती। वह स्पष्ट कहती है “संसार मिथ्या है या नहीं, यह तो मैं नहीं जानती, परन्तु आपका कर्मकाण्ड और आपके शास्त्र क्या सत्य है? जो सदैव रक्षणीय स्त्री की यह दुर्दशा हो रही है।” 

संघर्षरत व्यक्तित्व- 

इस नाटक में ध्रुवस्वामिनी का जीवन कष्टों से भरा हुआ है। इसीलिये उसके जीवन में पग-पग पर संघर्ष व्याप्त है। वह हमेशा परिस्थितियों से संघर्ष करती रही। शुरूआत में उसे मानसिक संघर्ष का सामना करना पड़ा, लेकिन वह किसी भी स्थिति में हार नहीं मानती है। संघर्ष करती हुई अन्त में विजयी होती हैं। ध्रुवस्वामिनी का निम्नलिखित कथन उसके संघर्षरत व्यक्तिव को उद्घाटित करने में सक्षम है-‘ भूल है-भ्रम है (ठहरकर) किन्तु उसका कारण भी है।

पराधीनता की एक परम्परा भी उसकी नस-नस में उसकी चेतना में न जाने किस युग से घुस गयी है। उन्हें समझकर भी भूल करना पड़ता है। क्या वह मेरी भूल न थी-जब मुझे निर्वासित किया गया तब मैं अपनी आत्म मर्यादा के लिये कितनी तड़पती रही और राजाधिराज रामगुप्त के चरणों में रक्षा के लिये गिरी, पर कोई उपाय चली नहीं। पुरूषों की प्रभुता का जाल मुझे अपने निर्दिष्ट पथ पर ले ही आया। 

चन्द्रगुप्त की प्रेरक शक्ति-

ध्रुवस्वामिनी चन्द्रगुप्त की प्रेरक शक्ति है। चन्द्रगुप्त ने रामगुप्त के लिये अपने सारे अधिकार छोड़ दिये थे। वह निष्क्रिय होकर जीवन व्यतीत कर रहा था, किन्तु ध्रुवस्वामिनी की प्रेरक शक्ति के द्वारा उसे अपने कर्त्तव्य का ज्ञान होता हैं वह चन्द्रगुप्त को अनाचार का विरोध करने के लिये उकसाती है। कुमार मैं कहती हूँ कि तुम प्रतिवाद करो। किस अपराध के लिये यह दण्ड ग्रहण कर रहे हो।

किस अपराध के लिये यह दण्ड ग्रहण कर रहे हो। वह आगे कहती है-झटक दो इन लौह श्रृंखलाओं को। यह मिथ्या ढोंग कोई नहीं सहेगा। तुम्हारा … ।भी नहीं। ” ध्रुवस्वामिनी की प्रेरणा पाकर चन्द्रगुप्त अपने खोये अधिकार को पुनः प्राप्त करता है। इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इस नाटक में ध्रुवस्वामिनी का चरित्र महान् है।

यह एक ही साथ एक दूसरे के विरोधी गुणों से मण्डित है। वह अबला होकर भी सबला है, विवश होकर भी कर्मठ है अपने इस परस्पर विरोधी गुणों से मण्डित होकर वह कर्म पथ पर अग्रसर होती है और युग-युग से प्रताणित नारियों का प्रतिनिधत्व करती हुई, उनकी मुक्ति का मार्ग प्रशस्त करती है। इस प्रकार हम कह सकते है कि ध्रुवस्वामिनी का चरित्र महान नारी गुणों से मण्डित हैं, जो अनुकरण करने के योग्य है।

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